दीदारगंज/आजमगढ़
जिन वृक्षों की छाया में बैठकर लोग विश्राम करते थे,राही सुस्ताते थे,हम तरह-तरह के खेल खेलते थे और परिन्दे अपने घोंसले बनाते थे, फल-फूलों से लदे-सजे वे वृक्ष अब धरती पर कम ही बचे। हमारी लालच ने उन्हें काट डाला। महकते आमों के वृक्ष कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आते। आम की बात छोड़िये बड़े पैमाने पर महुआ,जामुन,शीशम, पीपल, बरगद आदि के पेड़ हमारी लालच के शिकार हो गए। जल, जंगल, जमीन के तहस-नहस में हमने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। प्राकृतिक सम्पदा का अपने स्वार्थ में जिस तरीके से दूहन किया आज उसका खामियाजा हर कोई भुगत रहा है। मतलब आसमान से सीधे आग बरस रही है। भीषण गर्मी पड़ रही है। चहुँ ओर लूह,लुआरा तथा हीट वेव से त्राहिमाम मचा है। गाँवों के ताल-
तलइया,पोखरा,गढ़ई सब सूख चुके हैं यहाँ तक कि हैंड पाइपें, जल स्तर नीचे जाने से पानी छोड़ चुकी हैं। इंसान तो इंसान, मूक प्राणी पानी के लिए तड़प रहे हैं। आजकल की पीढ़ी को ये सब क्यों नहीं दिख रहा ? हम पेड़ काट सकते हैं तो पेड़ क्यों नहीं लगा सकते? हम किसी चीज पर अपना दावा ठोंक सकते हैं तो कर्तव्य से क्यों आँखें चुराएँ ? उस दौर में हमारे पूर्वजों को जितने बेटे होते थे, वो उतना बाग लगाते थे, गर्मी के दिनों में पौसला चलवाते थे। गाड़ा,गढ़ई, ताल-तलइया, पोखरा-
पोखरी सभी पानी से लबालब भरे रहते थे और वो चारों तरफ वृक्षों से अाच्छादित भी रहते थे।
बरसात के दिनों में गाँव के सभी लोग एकजुट होकर वानिकीकरण का काम करते थे। खाली जगह पर पौध लगाई जाती थी। उस दौर में नीम, बरगद, पीपल, आंवला, बबूल जामुन,सागौन, कटहल,शीशम आदि की पौध रोपी जाती थी। आज की नई पीढ़ी पेड़ तो बेच रही है लेकिन किसी तरह की नई पौध लगाने के मूड में नहीं दिख रही, तो गाँव स्तर पर ग्रामप्रधान,ब्लॉक स्तर पर बीडीओ, तहसील स्तर पर एस.डीएम व तहसीलदार तथा जिले स्तर पर जिलाधिकारी को एक संकल्पित भावना से इस वानिकीकरण और पर्यावरण के क्षेत्र में युद्ध स्तर पर कार्य करना चाहिए। पब्लिक के दिलो-दिमाग़ में इस तरह की भावना भरनी चाहिए कि वे खुशी-खुशी पौध रोपें। हरेक के अंदर ये बात घर कर जानी चाहिए कि वृक्षारोपण करना किसी यज्ञ से कम नहीं। इसी तरह के अधिकारी आम लोगों को बतायें कि धरती के नीचे का पानी जरुरत से ज्यादा न बर्बाद करें क्योंकि पानी किसी प्रयोगशाला में नहीं बनता। जो पानी बचा है सोच समझकर उसका सदुपयोग करें नहीं तो,वृक्ष तथा पानी बर्बाद करनेवालों को जुर्माना तथा सजा दोनों भुगतनी पड़ेगी। बिना डर के भय नहीं होती अर्थात सरकारी योजनाओं से वंचित करने जैसी व्यवस्था होनी चाहिए। देखा जाए, तो नहरों के दोनों किनारों पर बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जा सकता है। गाँव-गिरावँ में आज भी काफ़ी जमींनें खाली पड़ी हैं जिस पर वृक्षारोपण किया जा सकता है। अमूमन देखने में ये आता है कि कुछ नासमझ लोग इस तरह की पौध को बड़े होने से पहले नष्ट कर डालते हैं, ऐसे लोगों पर नजर ग्राम प्रधान तथा दूसरे जिम्मेदार लोगों को नजर रखना चाहिए। वृक्षारोपण करने के साथ-
साथ उसके संरक्षण पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है। ध्यान देने की जरुरत इसलिए पड़ रही है क्योंकि इस साल भीषण गर्मी ने न जाने कितने लोगों की जान ले ली, न जाने आगे क्या होगा। इस साल की गर्मी ने एसी, कूलर को धत्ता बता दिया। बे -इंतिहाँ गर्मी के पीछे और अनेक कारण हैं जैसे शहरीय जीवन के अलावा गाँव-गिरावँ में भी बड़े पैमाने पर चौड़ी-चौड़ी सड़कों का बनना, बहुतायत संख्या में पक्के मकान,इंटरलॉक होती पगडण्डिया, पोखरा-पोखरी को आहिस्ता -आहिस्ता पाटना, ये सब शामिल है वहीं दूसरी तरफ ट्यूबबेल तथा बिजली के मोटर से अत्यधिक पानी का दूहन, ये ऐसे कारण हैं जिस पर नियंत्रण पाना अत्यावश्यक है। जब तक ताल-तलइया,गढ़ई, पोखरा आदि पानी से लबालब नहीं भरे रहेंगे, जल स्तर ऊपर नहीं आ सकता। घास-फूस की मँडई, कच्चे मकान, ये गर्मी के कुचालक हैं, हमें कुदरती राहों पर चलकर इस तरह के प्रकोप से बचना चाहिए।
हम जितना तप,त्याग,संयम से दूर हटेंगे,उतना ही परेशानी में इजाफा होगा। हमें हरियाली की कमर तोड़ने के बजाय ग्लोबलवार्मिंग से बचने के रास्ते ढूँढने होंगे। जलाशयों की संख्या बढ़ानी होगी।
प्रिंट-मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर्यावरण के प्रति अपनी सजगता सुनिश्चित करें। करोड़ों वर्ष
पहले हरियाली से अच्छादित जो धरती हम पाए थे हमारी लालच ने इसे आज बे-लिबास कर दिया। साँसों की रफ्तार बढ़ानेवाले इन पेड़-पाधों को हमने लकड़हारों के हवाले कर दिया। जिन वृक्षों की पूजा-अर्चना और उसकी सजदा करते हमारे पूर्वज सदियों से चले आ रहे हैं,हमने उसे बेरहमी से काट डाला। कुदरत है, हिसाब तो लेकर ही रहेगी।
कंक्रीट के जंगल नहीं अपितु घनघोर वन हमारी और हमारी पीढ़ी की रक्षा करेंगे। इस धरती के इंसान को एक ऐसा संतुलन बनाना चाहिए कि उसकी जिन्दगी का सुकूँ बरकरार रहे। पेड़ों की डालों पर परिन्दे फिर से नग्में गाएँ। हजारों-हजारों प्रजातियाँ अपनी खो चुकी बची तितलियाँ फिर से बाग-बगीचों में उड़ान भरें। लोग ललचायी आँखों से उन्हें देखें और वहाँ से उठनेवाली गमकती बयार घरों के कोने-कोने तक अपनी खुशबू बिखेरे। उस ताजी हवा के झोंके से लोग-बाग झूम उठें। जंगली जानवर भी अपने पुराने लय में आ जाएँ क्योंकि वो भी पर्यावरण के साथी हैं।
ध्यान देने योग्य बात ये है कि अब कोई वृक्ष लकड़हारे की कुल्हाड़ी की धार से उसकी रुह न काँपे क्योंकि वृक्ष ही हमारी साँसों की रफ्तार को बढ़ानेवाले हैं, यही हमारे जीवन के पालनहार हैं। यही मौसम तथा रुत को बदलनेवाले हैं। इन्हें बे-लिबास करना किसी दृष्टिकोण से सही नहीं। आसमान के सितारे इनकी सुकोमल पत्तियों पर अपना आशियाना बनाते हैं। रात को आकर आराम फरमाते हैं। उनकी आँखें इन्हें देखकर तृप्त हो जाती हैं। इन पेड़ों के खूँ में नहाने से किसी को क्या मिलेगा? वृक्षों का ये मानना है कि इनकी पत्तियों के होंठों पर बैठकर परियाँ परीलोक की कहानी सुनाती हैं यहाँ की चाँदनी के झूलों में झूलते हुए झींगुर के तराने सुनती हैं और घर वापसी के दौरान जंगलों की खुशबू अपने आँचल में बाँधकर परीलोक ले जाती हैं। हे! धरतीवासियों इन गमकते- महकते पेड़ों को काटकर तुम अपना हाथ क्यों गन्दा कर रहे हो ? इस पवित्र जमींन में तुम्हारी तुलना में इनका हिस्सा ज्यादा है तो अपनी शराफत न छोड़ो। दुनिया के साथ-साथ बनारस की
सुबह और लखनऊ की शाम बे नूर होने से बचे।
यदि हम पेड़ों को मोहब्बत भरी नजर से देखेंगे, तो धूप भी चाँदनी जैसी लगेगी।